" एक और भगत सिंह आज "
मियां शरीफ ने पूछा मुझसे
कैसे पढूं नमाज़,
गला रुंधने लगती जब
अल्लाह को दूं आवाज़।
कुबूल खुदा कर पाएगा
क्या हाजी वह कहलाएगा ?
मुंह मोड़ राष्ट्र धर्म से क्या
वह जन्नत में जगह पाएगा ?
मैंने पूछा राष्ट्र धर्म की
क्या उसकी है परिभाषा ?
क्या लूट चूकी इस धरती की
है बची शेष कोई अभिलाषा ?
दम तोड़ चूकी इस अवनी पर
क्या करना पश्चाताप,
जिसकी हर पत्ती शाख पे बर्बर
पतझड़ का है प्रताप।
हिचकियां उठने लगी हलक में
उसके कांपने लगे होठ,
बिलख बिलख फिर लगा वो करने
शब्दों से विस्फोट।
बोला नसों में उठता आज फिर
वह कर्बला की ठंडी चोट,
जब जात धर्म के लोभ में बंटता
भारत का हर लोग।
क्या सुबह सवेरे ऑफिस में
बस आना है उसका काम ?
या फिर फाइलों में दबकर होगा
अनुपम जीवन का उसका विराम ?
क्या स्टाफ रूम से ड्राइंग रूम का
केवल सफ़र का वह हकदार,
या फिर मेक एंड मेंड में सब्जी लाना
जाना बिग बाज़ार।
क्या खूब भारतीयता का अद्भुत
वह कर्तव्य निभा रहा है ?
पवित्र खून को पानी फिर से
अपना बना रहा है !
क्या विकलांग हो चूकी मानसिकता का
नहीं होगा कोई आयाम ?
या खुलेआम हर मोड़ पे होगी
भारतीयता का कतलेआम ?
क्या सीवर बन चूकी सिस्टम से होगा
भारत निर्माण का अनुष्ठान ?
या करेगा कोई अभिमन्यु फिर से
इस चक्रव्यूह का समाधान ?
एक भारतीय होने का मिला है गौरव
क्या मिथ्या उसका अभिमान ?
कैसे भूल सकता उस मां को बेटा
कर रक्खा जिसका हो स्तनपान ?
चांदी सी चमकते माथे की
क्यारियों में रोप के हाथ,
एक आह भरी और बैठ गया,
जैसे वसंत की हो बरसात।
सन्नाटे को चीर रही थी
उसकी पैनी थी हर बात,
नई इमारत को गढ़ने में
क्या कंकड़ की नहीं बिसात ?
मैं और किशन दोनों चकित
क्या हुआ शरीफ को आज !
पर सच कहूं महसूस हुआ,
एक और भगत सिंह आज।
एक और भगत सिंह आज।
कवि परिचय —-
संतोष सिंह ‘ राख ‘
क्लर्क, यूको बैंक
सनोख्रर हाट शाखा
कहलगांव, भागलपुर